Tuesday, June 14, 2016

तिश्नगी




कल रात झील में तारे उतरे थे
फलक में तब  बादल जा बैठे थे
तन्हा सा चाँद उनकी आग़ोश में खो गया
किसी ने उसकी तिश्नगी को समझा क्या ?

एक शमा महताब से मिलन को जलती रही
अपनी आशनाई  से रात रौशन करती रही
एक भटकता अब्र आ कर उसको फूँक गया
किसी ने उस बादल की आवारगी को टोका क्या ?

हमने भी एक ख्वाब ज़हन में सजाया था
उम्मीद की लड़ी में उसको पिरोया था
कभी वक़्त के अंधेरों में वो हमारा चाँद बना
कभी हकीकत की तपिश में काली घटा बना

ज़माने से पोशीदाह-ए-फ़र्द किया हुआ
रूह के किसी हिस्से में महफूज़ रखा हुआ
तुम जाने कब घाएबानह सिरहाने से उसे चुरा ले गए
और एक बेज़ुबान सी ख्वाइश को अपना नाम दे गए

अब शब-ओ-रोज़ उसे तुम्हारी अमानत सा लिए फिरते हैं
हर लम्हा सवालों, वहमों, आशुफ्तगी की गिरहें उधेड़ते हैं
लेकिन फिर भी हर रात एक नया जज़बाह अंगड़ाई  लेता  है
और सुबह बिस्तर की सिलवट में तुम्हारा अक्स दिख जाता है

(तिश्नगी = passion,  महताब = moon, पोशीदाह-ए-फ़र्द = covered by a sheet, घाएबानह = secretly, आशुफ्तगी = confusion, अक्स = reflection)


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