Wednesday, January 9, 2013

रातें...

आज की रात तनहा बैठे छत पर 
चाय का गरम  प्याला पकड़ कर 
और कुछ गुज़री बीती ऐसी ही 
फिर पहचान करत़ी रातें आ गईं 

वो एक रात आई जब हम मिले थे 
चलते थे साथ मगर अजनबी से थे 
बातें तो बहुत थीं पर एक अनकही भी 
वो जाने कब तुमने सुन ली और मैंने भी 

और वो रात याद है तुम्हे, उस पहाड़ी पर 
धुंद में लिपटी आई थी जो हमारी खिड़की पर
हमने जल्दी से बिस्तर में समेट लिया था 
और अपनी तेज़ साँसों से उसे गर्म किया था  

एक रात उनमे वो भी थी महरूम उदास सी 
हमने महसूस करीं जब नाग़वार दूरियां सी 
पर फासलों को मिटाने तुम भी बेक़रार थे 
और तुम तक पहुँचते खुद ही मेरे कदम थे 

रस्मों रिवाजों की डोली में मुझे विदा कर 
जब ले आये थे तुम अपने बचपन के घर 
वो खामोश दुल्हन सी रात भी गले लगी फिर
जब तुम देर तक रोये थे गोद में रख कर सिर 

अकेले बिताई वो रात भी घबराई हुई आयी 
जब मेरी सांस में थी कोई और साँस समाई 
तुम्हारे आने के इंतज़ार में रात विदा हो गयी 
और हमारे साथ एक और ज़िन्दगी जुड़ गयी 

और कितनी ऐसी रातें बयाने सफ़ में खड़ी हुई 
हर घड़ी एक कड़ी तुम्हारी नब्ज़ से जुडी हुई 
तय होगा जब रुखसत की रात तक का सफ़र 
यादों के अंजुम की चादर ढ़क देना उस रात पर