Tuesday, March 15, 2016

हरारत





बहुत से लफ्ज़ हैं 
बुतों से खामोश खड़े हैं 
कोई बढ़ कर तुम तक ना पहुँचेंगे 
तुम  ख़ामोशी पढ़ लेते हो क्या ?


बारिश की बूँदें हैं 
बंद खिड़की पर कुछ लिख जाती हैं 
कोई हद्द पार कर तुम्हे नहीं छुएंगी 
तुम यूँ भी नाम हो सकते हो क्या ?


हवा के झोंके हैं 
आवारा से यूँ ही भटकते हैं 
कोई शायद उड़ते हुए तुम्हे मिल जाएँगे 
तुम हरारत क़ैद कर लेते हो क्या ?


शफ़क़ पर बिखरे अंजुम हैं 
नूर की जुबां में कुछ कहते हैं 
कोई रंजीदा से तुम्हारी ज़मीन पर भी गिरेंगे 
तुम रौशनी को गिरफ्त कर सकते हो क्या ?








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