Thursday, May 8, 2014

तिश्नगी

वक़्त के दौर गुज़र जाते हैं
ज़िन्दगी दायरों मे बँध जाती है
आरज़ुएँ भी भटकती हुई
थक कर कहीं छुप जाती हैं
बस कदम बढ़ते रहते हैं
कुछ धूल समेटते हैं,कुछ निशान मिटाते हैं...
किसी बेमौसम कि बारिश मे
उड़ते हुए गुज़रे ख्वाब आ जाते हैं
और ज़हन मे एक सवाल छोड़ जाते हैं
इस दिल में ऐसे भी अरमान थे
क्या कभी ये भी मुमकिन हो सकते थे ...
बचपन के घर के किसी कोने मे
उन पुराने पैराहन और खिलौनों मे
जो सजे हुए हैं मेरे उस कमरे में
अब भी वो मासूमियत देख पाते हैं
ख़िरद के बोझ तले जिसे रोज़ निसार करते हैं …
शम्स की आफ्ताबी से अब रुख फेर लेते हैं
चिलमनों मे क़ैद दिन गुज़ारते  हैँ
माहताब की रौशनी की नज़्में लिखते हैं
खुद को अलीम समझते हैं
पर सिर्फ़ फ़ाक़ाह मस्त ही तो हैं.…
मुक़द्दर से अब कोइ इल्तज़ा नहीं
बस वक़्त से है गुज़ारिश यही
रुख्शत से पहले दे जाये एक ऐसी आशिकी
रूह में जाग उठे फ़िर एक बार तिश्नगी
फिर चाहे ना हो ताउम्र चाहत कोई …


( ख़िरद  - wisdom, शम्स - Sun, माहताब - moonlight, फ़ाक़ाह मस्त - joyful in distress, तिश्नगी - longing)

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