Tuesday, May 7, 2013

कोहराम

 उस गोशहे  में है जो तीरगी  सी 
एक शमा थी जो ज़ुल्मत में ग़ुम गयी 
यूँ तो धुआं उठते कभी दिखा नहीं 
पर किसी की चाहत यहाँ बुझ गयी 

ये जो फर्श पर चुभते  हैं कांच के टुकड़े 
कल थे किसी की कलाई की चूड़ी में जड़े 
यूँ तो खामोश से ये टूट के बिखर पड़े 
पर कई मुरादों ने फ़ोघां भर यहाँ दम तोड़े 

चलते हो जिन बर्गे-गुल को रौंद कर 
वो सजे थे कल तक किसी की ज़ुल्फ़ पर 
यूँ तो वो बाग ही अर्सों से हुआ है बंजर 
पर बागबान को कहाँ अब फिर बहार मुयस्सर 

उड़ते हैं जो हवाओं में पुर्ज़हे से 
किसी ग़ज़ल के बेनसीब हर्फ़ हैं ये 
यूँ तो खामोश बेज़ुबान से हैं दिखते 
पर हैं किसी के दर्द-फ़रियाद के ये किस्से 


( गोशहे=corner,  तीरगी=darkness, ज़ुल्मत=darkness,  फ़ोघां=crying, बर्गे-गुल = flower petals,
 पुर्ज़हे=bits of paper, हर्फ़=letters )

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