Thursday, August 16, 2012

अनकही

बरसती बूँदें एक सुराही में गिरफ्त कर दीं  
और बेरंग आब-इ-बारां की सियाही कर दी
दिल के  हर असीरे राज़ को आज़ादी  दी
लिखा सब कुछ,पर आर्सी कोरी कर दी

वो सारे सुखन जो थे अरसों घुटे हुए
उन्हें हर्फों के परे  फ़रोज़ाँ  बक्श दिए
हर वो शिकवा जो खामोश बैठा था छुपे हुए
उसको जुबां की नेमत नज्र कर गए

चंद रिश्ते थे कुर्बतों में फरेबो  पर्दानशीं
उनकी ज़ात हकीकत से बेनक़ाब कर दी
कुछ चाहतें थीं ज़माने से अजनबी
उनको इख्तिलात की जज़ा अदा कर दी

सफ़र में जो मिले क़ाफ़िले गुज़र गए
अब उनके फ़साने भी रवाना कर दिए
हम पर जो इल्जामे हुजूमे कुर्ब के थे
हमने अपने नक्शे पा खुद ही मिटा दिए

हर ख्वाइश जो बेज़ुबां दम तोडती थी
क़फ़स से आज़ाद कर उसे आश्नाई दी
उन्सियत जो सिर्फ इक बेखुदी थी
उस से खुदी को ताउम्र की सुकूने रिहाई दी

दिल के गुबार फर्द पर उतरते रहे
अल्फाजों के ज़ुम्रह मुसलसल बढ़ते गए
हम कलम सियाही में डुबो लिखते रहे
और जाने किस नमीं से सुराही भरते गए


(आब-इ-बारां = rain water, असीर = prisoner, आर्सी = looking glass, कोरी = colorless, blind, सुखन = words, thoughts,  हर्फों = letters, परे  फ़रोज़ाँ = shining wings, इख्तिलात = intimacy, जज़ा = reward, नक्शे पा = footprints, क़फ़स = prison, उन्सियत = closeness, फर्द = paper,  ज़ुम्रह = crowd , मुसलसल =continuous )




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