Wednesday, April 20, 2011

inteha..

वो एक शाम मुलाक़ात की

हम थे तो अजनबी

और शायद नहीं भी..


वो आवाज़ ठहरी सी

जो तुम्हारी पहचान बनी

और मेरी आदत भी..


वो बातें जो तुमने कहीं

रूहे-ज़बान थीं मेरी

आरजुओं की सदा भी..


वो एक रात जलती हुई

सहर रुकी अब तक जिसकी

न शमा ही बुझी अभी...
 
वो सुबह जो पैगाम लाती
तारीक़ की पहचान सी

कुर्बत का गुमान भी...


वो एक घडी इज़हार की

साँसों की गहरी ख़ामोशी

धडकनों का शोर भी...


वक़्त की एक लम्बी लड़ी

इंतज़ार की हर कड़ी

बेहिस गिरहें भी...


समेट कर नेमतें सब तुम्हारी

कल बहा दी दरिया में सभी

अपनी आशिकी भी...


न रंज, न ज़ख्म कोई

पर जाने कैसी आह थी

पानी हुआ कुछ सुर्ख भी...



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