Thursday, September 22, 2016

रानाई













रात भी आज जाने क्या सोच के आई है 

अरमानों  की पूरी महफ़िल बिठाई है 


एक नींद ही है इस बज़्म में रुस्वा 

वरना हर बीती याद तो यहाँ आई है 


किस तरह करें इस दिल से शिक्वा हम 

इश्क़ की ज़िया जिसने आँधियों से बचाई है                                   


इस अख्तर-शुमारी के पार शायद सुकून हो

पर अभी तो सिर्फ साथ रक़्स करती तन्हाई है 


नीम-शब् से चश्म-ए-नम अब घुल गई  हैं 

नाकाम मुहब्बत की वार जो इतनी खाई हैं 


हर अंजुम सबाह से मिलने को बेक़रार है 

और हमने ज़ुल्मत में हर आस दफ़नाई है 


किस से तकाज़ा करें अपनी बर्बादी का 

यास-ए-लहू से खुद ज़ीस्त सजाई है 


सुबह उन की खबर हो भी जाये शायद 

अभी तो बड़ी गहरी तीरगी की खाई है 


देखो अब तो शमा भी थक कर बुझने लगी 

चलो ख़्वाबों की आतिशबाजी तो काम आई है 


दुनिया तुम इस चाहत को रा'एगॉन ना कहना 

क़ज़ा से पहले आरज़ू ने आखरी परवाज़ लगाई है 


उनको हमारी क़द्र न हो सकी तो क्या 

हमारी तरफ से नेमत उनको ये आश्नाई है 


हम तो कल बन कर यूँ ही गुज़र जायेंगे 

आज तीरगी में हमसे तिश्नगी की रानाई है 


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