Thursday, January 19, 2012

बदलती राहें

ज़िन्दगी के एक मोड़ पर
एक राह हमने चुनी थी
और भी कई राहें थीं
जो उस मोड़ पर छोड़ी थीं..
बड़े खुशनुमा नज़ारे थे,
रफीक भी कई हमारे थे,
हाथ बढ़ा कर तोड़ लें
बस इतनी ही दूर तारे थे..
फिर जाने कैसी हवा चली,
फिज़ा कुछ यूँ बदल गयी
हर नफ्ज़ जैसे घुट सी गयी
हर कदम पर ज़िन्दगी थम गयी..
ख़ामोशी में आवाज़ें गूंजती रहीं,
अजनबी आँखें कुछ इल्ज़ाम देती रहीं,
हौसला मुह छुपा जा बैठा कहीं,
किसी तमन्ना ने भी दस्तक दी नहीं..
हर दरीचे को खुद बंद कर,
रौशनी से किनारा कर,
हम भी कुछ यूँ मिट गए,
अंधेरों में बस सिमट गए...
पर आरज़ुओं की अपनी उम्र होती है,
वो हकीकत से बस बेफिक्र होती हैं,
एक दिन हमसे मुखातिब होकर,
आईने की धूल मिटाकर,
ऐसी ही एक ख्वाइश ने
कहा, तुम में ही रहती हूँ मैं
चलो इन गलियों को छोड़कर, 
फिर नए इस मोड़ पर,
एक नई राह चुनें
कुछ रंगीन सपने फिर बुनें...
देखो हर शब् के उस पार,
फैला है एक किरणों का हार,
सूरज की सीढ़ी पर आओ चढ़ें,
ज़ुल्मत की दीवार फांद लें...
तुम कैसे यूँ मुन्किर हो गए,
हौसले से क्यूँ फ़कीर हो गए,
शमा रोज़ जल के यूँ तो खाक़ होती है,
पर उसकी किस्मत फिर भी पाक होती है..
समेट कर ज़हन के उधडे पैराहन,
आज फिर से संभाला है अपना मन,
राहें आगे और भी कई हैं
जो आज यहाँ हमने छोड़ी हैं,
और ज़िन्दगी के इस मोड़ पर
सहमा हुआ एक कदम बढ़ाकर,
एक राह फिर चुनी है....













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