Saturday, October 22, 2011

qaid..

ज़िन्दगी का एक अँधेरा कमरा है
वहां है मेरा कुछ खोया हुआ सामान भी
पैबंद लगी वक़्त की चादर से ढका है
हिफाज़त से छुपा हुआ सब, अब भी

इक टूटी हुई तिरछी सी अलमारी है
जिसका कोई भी खाना ख़ाली नहीं
हर पिंजरे में क़ैद कोई कहानी है
अरसों हुए बीत गयी,अब तक गुजरी नहीं

इक घुटी हुई सिसकती सी आवाज़ है
चंद ज़ख्म, कुछ नासूर, हमलावार खंजर भी
आँखों से टपका लाचार सा एक मोती है
रिश्तों की डोरें, उनमे पड़ी सब गिरहें भी

इक बिखरा बचपन कहीं उदास बैठा है
लिए सवाल कई, हासिल जिसको जवाब नहीं
आवारा सी भटकती बेचैन जवानी है
हर मोड़ पर गुमराह, मिली जिसे मंजिल नहीं

किसी का उधार का एक खिलौना है
एक पुरानी किताब, कोरे औराक़ अब भी
बेलगाम उडी थी, ऐसी बेबस कटी पतंग है
चुभते हुए कुछ खर हैं, गुल के इंतज़ार में अब भी


आईने की दरारों में एक अन्जान शक्ल है
कुछ क़दमों के निशाँ, मंजिल तक जो पहुंचे नहीं
किसी कोने में सहमा हुआ मेरा इक ख्वाब है
सायों से वो मरासिम,जिनके थे कोई वजूद नहीं

जाने क्यूँ आज इस देहलीज़ पर नज़र पड़ी है
ज़माना हुआ पर दस्तक-इ-इंतज़ार में है अब भी
अन्दर कहीं एक दहकता हुआ दिल भी है
कुर्बत की चाह में पर तगाफुल-इ-नसीब अब भी





No comments: