जाने क्यूँ भटकती सी रहती है
मेरे लफ़्ज़ों में अटकती सी रहती है
कभी बंद दरवाज़ों से टकराती है
हवाओं में बेजान सी लहराती है
कुछ हर्फ़ समेट के ले आती है
फिर खुद ही बिखर जाती है
वक़्त की गर्द हटाकर झांकती है
फिर सारी तस्वीरें खुद मिटाती है
रात सिरहाने के नीचे ख्वाब ढूँढती है
सुबह उन्हें कहीं छुपा आती है
यूँ तो मेरे करीब ही रहती है
पर अजनबी सी अक्सर मिलती है
उसकी बेरुखी कुछ शिकायत करती है
जाने किसकी बेवफाई याद दिलाती है
मेरी सिर्फ वो एक नज़्म ही तो है
फिर क्यूँ खुदी से अज़म हो जाती है
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