हम शिकवा करना ना सीख सके
उन्हें लगा हमे आशिकी का सलीका नहीं
कांपते हाथ जो दस्तक दे ना सके
उन्हें लगा हम उनके दीदारो- मुन्तज़िर नहीं
ठहरे कदम दहलीज़ पार कर ना सके
उन्हें लगा हम उनकी गली से गुज़रे नहीं
दुआ भी करें जो सर झुका के
उन्हें लगे की हमसा कोई मुन्किर नहीं
अब जो इंतज़ार में खामोश बैठें हैं
वो समझते हैं की हमसा कोई बेज़ार नहीं
आज मयखाने तक जो पहुँच गए
फिर काबे तक की राह का हौसला नहीं
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