उस गोशहे में है जो तीरगी सी
एक शमा थी जो ज़ुल्मत में ग़ुम गयी
यूँ तो धुआं उठते कभी दिखा नहीं
पर किसी की चाहत यहाँ बुझ गयी
ये जो फर्श पर चुभते हैं कांच के टुकड़े
कल थे किसी की कलाई की चूड़ी में जड़े
यूँ तो खामोश से ये टूट के बिखर पड़े
पर कई मुरादों ने फ़ोघां भर यहाँ दम तोड़े
चलते हो जिन बर्गे-गुल को रौंद कर
वो सजे थे कल तक किसी की ज़ुल्फ़ पर
यूँ तो वो बाग ही अर्सों से हुआ है बंजर
पर बागबान को कहाँ अब फिर बहार मुयस्सर
उड़ते हैं जो हवाओं में पुर्ज़हे से
किसी ग़ज़ल के बेनसीब हर्फ़ हैं ये
यूँ तो खामोश बेज़ुबान से हैं दिखते
पर हैं किसी के दर्द-फ़रियाद के ये किस्से
( गोशहे=corner, तीरगी=darkness, ज़ुल्मत=darkness, फ़ोघां=crying, बर्गे-गुल = flower petals,
पुर्ज़हे=bits of paper, हर्फ़=letters )
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