आज सुबह जब आँख खुली
तो सिरहाने बैठी वो मिली
सूरज की पहली किरण, भोली
उखड़ी हुई, नाराज़ सी, बोली
"रात भर जुदाई का ग़म सहती
अँधेरी दूरियों को पार करती
तन्हाई का हर लम्हा काटती
तेरी नज़दीकी को तरसती,
हर रोज़ इस उम्मीद में आती हूँ
की शायद आज 'मैं' पहले पहुँचूँ
तेरे ख्वाबों से पहली मुलाक़ात करूँ
अंगड़ाई तोड़, तुझे आगोश में ले लूँ ।
पर हर रोज़ कोई मुझसे पहले आ जाता है
चूम पलकें, तेरे ख्वाब चुरा के ले जाता है ,
बिस्तर की सलवटों में उसका अक्स मैंने देखा है
कौन है वो जो तेरी हर सांस में महकता है ?
अक्सर कहीं दूर चली जाती हो
यूँ ही बेवजह धीमे से मुस्काती हो ,
कभी लम्बी सी आहें भरती हो,
किसी अनदेखे से, मन ही में उलझती ।
कौन है वो अजनबी, तुम्हारा अपना
जिसने कर दिया यूँ ज़माने से बेगाना
कभी उस से मेरी भी मुलाक़ात कराना। …"
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