यह जो आसमान काली चुनर ओढ़ के आया है
इसका भी दिल आज लगता कुछ कुम्हलाया है
इसके दामन से एक बादल का टुकड़ा चुराकर
दुनिया की तीरती नज़रों से उसे छुपाकर
मैंने दिल के कुछ सपने उसकी तह में रख दिए
और दूर पहाड़ के टीले से हवा के पंख उसको दे दिए
जाने कभी उनसे फिर मुलाक़ात होगी या नहीं
या बरस कर बिखर जायेंगे यूँ ही कहीं
दिल में हर चाहत खामोश, बेज़ार पड़ी हुई है
रास्ते में जैसे कोई मूरत बेमुराद खड़ी हुई है
वक़्त कल फिर एक नया मुखौटा पहन कर आएगा
पर अब इस बुत को कब कोई नया रंग दे पायेगा
सुना है कि साँसों का सफ़र होता है मुख़्तसर
कोई हमसे पूछे कितनी लम्बी है यह राहगुज़र..
No comments:
Post a Comment