रात भी आज जाने क्या सोच के आई है
अरमानों की पूरी महफ़िल बिठाई है
एक नींद ही है इस बज़्म में रुस्वा
वरना हर बीती याद तो यहाँ आई है
किस तरह करें इस दिल से शिक्वा हम
इश्क़ की ज़िया जिसने आँधियों से बचाई है
इस अख्तर-शुमारी के पार शायद सुकून हो
पर अभी तो सिर्फ साथ रक़्स करती तन्हाई है
नीम-शब् से चश्म-ए-नम अब घुल गई हैं
नाकाम मुहब्बत की वार जो इतनी खाई हैं
हर अंजुम सबाह से मिलने को बेक़रार है
और हमने ज़ुल्मत में हर आस दफ़नाई है
किस से तकाज़ा करें अपनी बर्बादी का
यास-ए-लहू से खुद ज़ीस्त सजाई है
सुबह उन की खबर हो भी जाये शायद
अभी तो बड़ी गहरी तीरगी की खाई है
देखो अब तो शमा भी थक कर बुझने लगी
चलो ख़्वाबों की आतिशबाजी तो काम आई है
दुनिया तुम इस चाहत को रा'एगॉन ना कहना
क़ज़ा से पहले आरज़ू ने आखरी परवाज़ लगाई है
उनको हमारी क़द्र न हो सकी तो क्या
हमारी तरफ से नेमत उनको ये आश्नाई है
हम तो कल बन कर यूँ ही गुज़र जायेंगे
आज तीरगी में हमसे तिश्नगी की रानाई है
(ज़िया-flame/light, अख्तर-शुमारी- keeping awake at night in anxiety, रक़्स - dance, नीम-शब्- midnight, चश्म-ए-नम - tearful eyes, अंजुम - star, सबाह- dawn, ज़ुल्मत- darkness, यास-ए-लहू - blood of hopelessness, ज़ीस्त - life, तीरगी - darkness, आतिश- fire, रा'एगॉन- vain/waste, क़ज़ा - death, परवाज़- flight, नेमत- gift, तिश्नगी-longing/desire, रानाई - grace/beauty)